जीवन की हर पीड़ा को शब्दों में ढ़ाल देना, और फिर उन्हें गीत बना देना, यही कला थी हरिवंशराय बच्चन जी की। हरिवंशराय बच्चन हिंदी कविता का वह नाम हैं जिन्होंने शब्दों को सिर्फ लिखा नहीं, जिया था। उनकी कविताओं में ऐसी आत्मा बसती है जो सीधे मन के भीतर उतर जाती है। न कोई बनावटीपन, न कोई दिखावा, बस सच्चे भाव, सच्चे शब्द, और सच्ची अनुभूति। उनकी पंक्तियाँ जैसे किसी इंसान की धड़कनों में बसी हों, जिन्हें पढ़ते ही दिल मर्मस्पर्शी हो जाता है। उनका उपनाम “बच्चन” सिर्फ उनका नाम नहीं रहा, बल्कि एक युग की पहचान बन गया।
बच्चन जी की सबसे गहन रचनाओं में से एक थी ‘मधुशाला’। मधुशाला केवल शराब या मदिरालय पर आधारित कविता नहीं है, बल्कि यह जीवन का एक गहरा दर्शन है। इसमें “मदिरा” जीवन के अनुभवों, भावनाओं, आनंद और दुःख का प्रतीक है, जबकि “शाला” इस संसार का रूपक बनकर सामने आती है। बच्चन जी ने इस कविता के माध्यम से जीवन के उतार-चढ़ाव, संघर्ष और उसकी सुंदरता को बेहद सरल और सजीव शब्दों में व्यक्त किया है। सतही तौर पर आपको कविता में कुछ भी गहरा या सार्थक नहीं मिलेगा, परंतु जैसे-जैसे आप गहराई में जाएंगे, आपको ऐसे अर्थ मिलेंगे जो कविता के विषय या शीर्षक के किंचित भी करीब नहीं हैं। ऐसे अर्थों को जब सरल शब्दों में समझाने की कोशिश की जाती है, तो कदाचित हमारे लिए यह संभव न हो। लेकिन हरिवंशराय बच्चन जी के लिए यह एक ऐसी कला थी जिसमें वे पहले से ही निपुण थे।
कविता का एक मूल दार्शनिक संकेत यह है कि जीवन को अनुभव करना ही उसका उद्देश्य है, न कि केवल सिद्धांत बनाकर उसे दूर रख देना। बच्चन जी जब मदिरा का पान कहते हैं, तो वे हमें जीवन के उन क्षणों का स्वाद लेने के लिए प्रेरित करते हैं जिन्हें समाज प्रायः तुच्छ या निषिद्ध घोषित कर देता है। यहाँ “नशा” एक माध्यम है, वह माध्यम जो सीमाएँ मिटाकर अस्तित्व की तात्विक सच्चाइयों तक पहुँचने देता है, पर कविता इसको केवल उत्सव के रूप में नहीं दिखाती, बल्कि चेतावनी के साथ भी प्रस्तुत करती है: अनुभव तभी सार्थक है जब वह जागरूकता की ओर ले जाए।
इस प्रकार मधुशाला का नशा, नशे की पारम्परिक निंदा से अलग, आत्म-ज्ञान की ओर एक उपहासात्मक और प्रेमपूर्ण आवाहन बन जाता है। मधुशाला हमें एक जीवन-नीति सिखाती है: समय-मात्र को जी भरकर अपनाओ, किंतु उसी के साथ उस गहनता को भी समझो जो अनुभवों के पार है। यह कविता हमें अहंकार के परे जाकर उस साझा मानवीय चेतना से जुड़ने का बुलावा देती है, जो सर्वाधिक सरल और सशक्त दोनों है। बच्चन जी की यह रचना इसलिए दार्शनिक रूप से महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि उन्होंने साधारण भाषा में ऐसे अंतर्दृष्टिपूर्ण प्रश्न उठाए जो पाठक को आत्म-निरीक्षण, सहानुभूति और जीवन के प्रति एक नई जागरूकता की ओर ले जाते हैं।
‘मधुशाला’ के अतिरिक्त उन्होंने ‘मधुबाला’, ‘मधुकलश’, ‘निशा निमंत्रण’, और ‘एकांत संगीत’ जैसी अनमोल रचनाएँ दी, जो आज भी हिंदी साहित्य के आकाश में सितारों की तरह चमक रही हैं। उन्होंने कविता को ऊँचाई नहीं, गहराई दी, और हर आम इंसान की भाषा में भावनाओं का संगीत घोल दिया।
उनकी जो कविता मुझे सबसे गहराई से छूती है, वह है — ‘अग्निपथ’। यह कविता केवल शब्दों का मेल नहीं, बल्कि एक जीवन मंत्र है। हर पंक्ति में संघर्ष, साहस और आगे बढ़ने की लालसा है। यह कविता केवल कुछ पंक्तियों का मेल नहीं है, बल्कि आत्मा की पुकार है, एक ज्वाला है, जो थकान, निराशा और भय के अंधकार में भी जलती रहती है। हरिवंशराय बच्चन जी ने जब ‘अग्निपथ’ लिखा, तब वे जीवन के अनेक संघर्षों, असफलताओं और आत्मद्वंद्वों से जूझ रहे थे। यह कविता उन्हीं संघर्षों की राख से निकला एक अग्नि-बीज है — जो जलता नहीं, जलाता है; टूटता नहीं, तोड़ता है। यह कविता हमें बताती है कि जीवन में सबसे बड़ा साथी हमारा संकल्प है, न कि परिस्थितियाँ। बच्चन जी ने यहाँ एक ऐसा दर्शन रचा है जिसमें त्याग, साहस और आत्मबल एक साथ जलते हैं। वे कहते हैं — राह कठिन हो सकती है, पर पीछे मुड़ना विकल्प नहीं है। जिस पथ पर चलना है, वह अग्निपथ है, वहाँ फूल नहीं, अंगारे बिछे हैं, पर वही आग आत्मा को शुद्ध करती है, और उसे अमर बनाती है। इस कविता की गहराई तब खुलती है जब इसे बार-बार पढ़ा जाए। पहली बार यह केवल एक प्रेरक गीत प्रतीत होती है, पर हर पढ़ने के साथ यह भीतर उतरती जाती है। कभी यह तुम्हारे भीतर की कमजोरी को चुनौती देती है, कभी तुम्हारे मौन को शद्ब देती है, और कभी तुम्हें याद दिलाती है कि “चलते रहना” ही जीवन का धर्म है। यह कविता जीवन के उन क्षणों में सहारा बनती है, जब सब कुछ बिखरा हुआ सा लगता है। यह कहती है — जो गिरकर भी उठता है, वही जीवित है।
हरिवंशराय बच्चन जी की यह रचना आज भी उतनी ही प्रासंगिक है, जितनी उस समय थी जब उन्होंने इसे लिखा था, क्योंकि हर युग में, हर इंसान को अपना अग्निपथ पार करना ही पड़ता है। यह कविता केवल शब्द नहीं, एक अनुभव है, जो हमें तब थामती है, जब हम स्वयं को गिरता हुआ महसूस करते हैं। यह कविता अपने भीतर से एक आवाज़ उठाती है — “चलते रहो, थको मत, रुको मत, क्योंकि यही तुम्हारी अग्नि है और यही तुम्हारा मार्ग है।” और शायद यही अग्निपथ का सबसे गहरा अर्थ है, कि मनुष्य का अस्तित्व तभी सिद्ध होता है जब वह चलना बंद नहीं करता, तब भी जब धरती तप रही हो, और आकाश बरसना भूल जाए। इस कविता की हर पंक्ति एक मंत्र है, हर शब्द एक दीपक है, और हर भावना उस अटूट विश्वास का प्रतीक है, जो कहता है — “केवल वही जो जल चुका हो, वही प्रकाश देगा।”
उन्होंने हमें सिखाया कि कविता केवल भावनाओं की अभिव्यक्ति नहीं, बल्कि आत्मा का संवाद है। उनकी लेखनी में प्रेम था, पीड़ा थी, दर्शन था, और सबसे बढ़कर, मनुष्य होने की गरिमा थी। उन्होंने अपने शब्दों से दिखाया कि जीवन चाहे कितना ही कठिन क्यों न हो, जब तक भीतर की लौ जलती है, तब तक कोई अंधकार स्थायी नहीं रह सकता। उनकी कविताएँ हमें बार-बार याद दिलाती हैं कि हर दर्द के पीछे एक सीख है, और हर संघर्ष के पीछे एक नया आरंभ छिपा है। यही बच्चन जी की सबसे बड़ी विरासत है, कि उन्होंने हमें जीना सिखाया, और गिरने के बाद फिर उठने का साहस दिया। उनके शब्द आज भी उतने ही नये लगते हैं, जितने उस दिन जब उन्होंने पहली बार कलम उठाया था, क्योंकि उनका लिखा हुआ केवल पन्नों पर नहीं, हम सबके भीतर धड़कता है, जैसे कोई अमर स्वर जो कहता है, “रुकना नहीं, झुकना नहीं, क्योंकि यही जीवन है।”
और अंत में, हरिवंशराय बच्चन जी की वो अमर पंक्तियाँ, जो उनके दर्शन और व्यक्तित्व का सार कहती हैं —
“जो बीत गई सो बात गई,
जीवन में फिर न खोना ठहराव कहीं।”
-रोनित रॉय

Great blog!
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